आरज़ू
ओस की बूंदे, हम आँखे है मूंदे
पड़े हो कही दिन के पहले पहर में
जमीं का आँचल या फूलों का बिस्तर
तारों को ओढ़े तुम्हारे शहर में
चूमूँ कि देखु, या बस मर ही जाऊ
उल्फत भरी इस निगाह-ओ-नज़र में
आसां नहीं अब तुझे अपना बना लू
ज़माने का हुआ मैं गुज़र और बसर में
होठो से खेलू तेरी जुल्फों में रह लू
आरजू रहेगी अब मरके कब्र में