Saturday 6 August 2016


रुदन 

कल देखा एक हाड का पुतला
मांस ना उसमे छटाँक था ,
लोगो की खुसफुसाहट में सुना
उसका नाम किसान था।

जिस पर वो संभला गिरा चढ़ता था
बचपन जिसका जहाँ अटका था
उसी तालाब के  बरगद पे
आज कही वो लटका था।

बेवा उसकी रोती थी किधर
कोने में अपनी कुटिया के
बाबा कहना भी सीखा ना था
देखे आंसू उस बिटिया के।

लड़का उसका ना रोया था
धीरज हिव में संजोया था
दिन चढ़ता जाता जेठ का 
सूरज ने भी आपा खोया था

निर्धन लाचार अनपढ़ औरत
ऊपर से दलित भी होती है
जाकर देखो हर तीजे घर में
कोई ना कोई रोती है।

इन कर्ज़ों में दबी लाशों पे
नींवे हमारी लगती है
झोपड़िया ही सिमटती जाती है
भवनों में महफ़िल सजती है।

सुन रुदन आज उस औरत का
अस्तित्व मेरा न गमा जाऊँ
चीखों से सबकी आज यही
ये धरा फटे मैं समां जाऊ।  

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